कहानी संग्रह >> टिकट संग्रह टिकट संग्रहनिर्मल वर्मा
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प्रस्तुत है कारेल चापेक की कहानियाँ....
Tikat Sangrah
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
चेकोस्लोवाकिया का नाम सुनते ही पिछली सदी के जिन इने-गिने लेखकों का ध्यान बरबस आता है, उनमें कारेल चापेक प्रमुख हैं। वह सम्पूर्ण रूप से बींसवीं शताब्दी के व्यक्ति थे, असाधारण अन्तर्दृष्टि के मालिक। उनका सुसंस्कृत लेखक व्यक्तित्व हमें बरबस रोलाँ और रवीन्द्रनाथ जैसी ‘सम्पूर्ण आत्माओं’ का स्मरण करा देता है। उनकी लगभग सब महत्वपूर्ण रचनाएँ दो विश्व-युद्धों के बीच लिखी गईं। यहाँ प्रस्तुत उनकी एक कहानी ‘टिकट संग्रह’ में वह कहते हैं कि किसी चीज़ को खोजना और पाना-मेरे खयाल में ज़िन्दगी में इससे बड़ा सुख और रोमांच कोई दूसरा नहीं। हर आदमी को कोई-कोई चीज़ खोजनी चाहिए। अगर टिकट नहीं तो सत्य या पंख या नुकीले विलक्षण पत्थर।’
चापेक ने अपने साहित्य में हर व्यक्ति के ‘निजी सत्य’ को खोजने का संघर्ष किया था-एक भेद और रहस्य और मर्म, जो साधारण ज़िन्दगी की औसत और क्षुद्र घटनाओं के नीचे दबा रहता है। ‘यदि कोई चीज़ रहस्यमय है तो यह कि आपकी ज़िन्दगी किस खयाल में डूबी है या आपकी नौकरानी सपने में किसे देखती है या आपकी पत्नी इतनी खामोश मुद्रा में खिड़की से बाहर क्यों देख रही है....’
लगभग चार दशक पहले कथाकार श्री निर्मल वर्मा ने पहली बार कारेल चापेक की कहानियों को मूल चेक भाषा में रूपान्तरित करके हिन्दी में प्रस्तुत किया था। इस बीच विश्व में कई ऐतिहासिक परिवर्तन हुए हैं। बदली हुई परिस्थितियाँ कई विषयों के नये सिरे से पुनर्निरीक्षण की माँग करती हैं। पुनर्मूल्यांकन में यह ऐतिहासिक अनुवाद भी अपनी भूमिका रेखांकित करेगा, ऐसा विश्वास है।
चापेक ने अपने साहित्य में हर व्यक्ति के ‘निजी सत्य’ को खोजने का संघर्ष किया था-एक भेद और रहस्य और मर्म, जो साधारण ज़िन्दगी की औसत और क्षुद्र घटनाओं के नीचे दबा रहता है। ‘यदि कोई चीज़ रहस्यमय है तो यह कि आपकी ज़िन्दगी किस खयाल में डूबी है या आपकी नौकरानी सपने में किसे देखती है या आपकी पत्नी इतनी खामोश मुद्रा में खिड़की से बाहर क्यों देख रही है....’
लगभग चार दशक पहले कथाकार श्री निर्मल वर्मा ने पहली बार कारेल चापेक की कहानियों को मूल चेक भाषा में रूपान्तरित करके हिन्दी में प्रस्तुत किया था। इस बीच विश्व में कई ऐतिहासिक परिवर्तन हुए हैं। बदली हुई परिस्थितियाँ कई विषयों के नये सिरे से पुनर्निरीक्षण की माँग करती हैं। पुनर्मूल्यांकन में यह ऐतिहासिक अनुवाद भी अपनी भूमिका रेखांकित करेगा, ऐसा विश्वास है।
प्रथम संस्करण की भूमिका
दुर्भाग्यवश केन्द्रीय और पूर्वी यूरोप के देशों के साहित्य से हमारा परिचय बहुत सीमित रहा है। थोड़ी बहुत जानकारी जो कभी-कभार मिलती रही है, वह केवल अंग्रेज़ी के माध्यम से—और वह भी बहुत असन्तोषजनक और असन्तुलित रूप में। यदि हम एक क्षण के लिए काफ्का, मान, रिल्के इत्यादि कुछ लेखकों को छोड़ दें, तो स्वयं अंग्रेज़ी में हमें अनेक महत्त्वपूर्ण कृतियों के अनुवाद आसानी से उपलब्ध न हो सकेंगे। यों भी पिछले अनेक वर्षों से एंग्लो-अमरीकी साहित्य का प्रभाव हम पर इस कदर हावी रहा है कि हम केवल उसकी खिड़की से ही यूरोप की कलात्मक गतिविधियों का अवलोकन करते रहे हैं। कहना न होगा—यह खिड़की—एक बहुत एकांगी और कुछ हद तक पूर्वाग्रहपूर्ण दृश्य प्रस्तुत कर रही है। यही कारण है कि हम आज तक मुसिल, हाशेक, अतिला जोसेफ, चापेक या कार्ल क्रॉस की क्लासिक-कृतियों की अपेक्षा दूसरे या तीसरे दर्जे के अंग्रज़ी-अमरीकी लेखकों से कहीं अधिक परिचित हैं।
कारेल चापेक हमारे लिए नितान्त अपरिचित लेखक नहीं हैं—यद्यपि हिन्दी में उनकी रचनाओं का अनुवाद नहीं के बराबर ही हुआ है। चेकोस्लोवाकिया का नाम सुनते ही जिन चन्द इने-गिने लेखकों का बरबस ध्यान हो आता है—‘भला सिपाही श्वायक’ के लेखक हाशेक, फ्यूचिक, तज़वल—उनमें चापेक का स्थान शायद सबसे विशिष्ट है। मेरे लिए चापेक की स्मृति कुछ ऐसी पुस्तकों से जुड़ी हुई है, जिन्हें हम बचपन में पढ़ते हैं—और बरसों बाद जब उनकी तरफ दोबारा लौटते हैं, तो वही गहरा और संवेदनपूर्ण प्रभाव आता है, जो पहली बार पढ़ने पर हुआ था। अपने देश में वह शायद आज भी सबसे लोकप्रिय लेखक हैं। पहली बार जब प्राग की किसी दुकान में मुझे चापेक की कोई पुस्तक नहीं मिली, तो मुझे काफी आश्चर्य हुआ था। चापेक के देश में ही चापेक की कोई किताब नहीं, मुझे यह एक अविश्वसनीय-सी बात लगी थी। बाद में एक दिन किसी पुस्तक की दुकान के सामने लोगों की एक लम्बी क्यू दिखाई दी। पूछने पर पता चला कि उस दिन चापेक के किसी उपन्यास का नया संस्करण प्रकाशित हुआ था। दोपहर होते-होते शहर की कोई ऐसी दुकान नहीं बची थी, जिसमें चापेक की एक प्रति भी मिल सके !
कारेल चापेक का जन्म 1890 में एक छोटे-से औद्योगिक नगर ऊपीत्से में हुआ था। उनका बचपन सचमुच बहुत छोटा था—शायद यही कारण था कि बड़ा होने पर भी वह हर चीज़ और व्यक्ति को बच्चे की जिज्ञासा से देखा करते थे और बच्चे की ही तरह उनका हर चीज़ में सहज विश्वास था। वह सर्वतोमुखी प्रतिभा के लेखक थे—उपन्यासकार, कहानी-लेखक और नाट्यकार होने के अलावा उन्होंने ‘पर्सनल’ निबन्ध और यात्रा-संस्मरण-जैसी विधाओं में भी अनेक नए और दिलचस्प प्रयोग किए थे। बहुत कम लोगों को मालूम है कि फ्रेंच प्रतीकवादी और सुररियलिस्ट कविताओं के उनके अनुवादों ने चेक कवियों की एक समूची पीढ़ी को प्रभावित किया था। आधुनिक चेक साहित्य को यूरोपीय साहित्य के समकक्ष लाने और उसे बीसवीं शताब्दी के जीवन्त संदर्भ में जोड़ने का श्रेय जितना चापेक को जाता है, उतना शायद किसी और अन्य लेखक को नहीं। उनकी लगभग सब महत्त्वपूर्ण रचनाएँ दो युद्धों के बीच लिखी गई थीं—वह एक ऐसी दुनिया थी, जो आज हमें काफी दूर और पराई जान पड़ती है, लेकिन जिसमें पहली बार बीसवीं शती की समस्याओं ने जन्म लिया था।
कारेल चापेक सम्पूर्ण रूप से बीसवीं शताब्दी के व्यक्ति थे...अत्यन्त समवेदनशील, असाधारण अन्तर्दृष्टि के मालिक, दो आँखों में हजार आँखें लिए हुए, अपने संस्पर्श से हर अँधेरी चीज़ को उजागर करने वाले, असली मायनों में एक सुसंस्कृत लेखक। उनका व्यक्तित्व बरबस हमें रोलाँ या रवीन्द्रनाथ-जैसी सम्पूर्ण आत्माओं का स्मरण करा देता है। चापेक ने अपने साहित्य में हर व्यक्ति के ‘निजी सत्य’ को खोजने का संघर्ष किया था—एक भेद और रहस्य और मर्म, जो ‘साधारण ज़िन्दगी’ की औसत और क्षुद्र घटनाओं के नीचे दबा रहता है। ‘खोज’ की यह उत्कट आकांक्षा आपको इन कहानियों में भी मिलेगी। अपनी एक कहानी ‘टिकट संग्रह’ में वह कहते हैं, ‘‘किसी चीज़ को खोजना और पाना—मेरे ख़याल में ज़िन्दगी में इससे बड़ा सुख और रोमांच कोई दूसरा नहीं। हर आदमी को कोई न कोई चीज़ खोजनी चाहिए...अगर टिकट नहीं तो सत्य या पंख या नुकीले विलक्षण पत्थर।’’ यह खोज एक किस्म का प्रायश्चित्त भी है, जिसके द्वारा मनुष्य अपनी ‘अपूर्णता’ के पाप से मुक्ति पा लेता है। चापेक ‘धार्मिक’ लेखक नहीं थे—कम-से-कम उस अर्थ में नहीं, जिसमें हम इस शब्द को प्रायः समझते हैं—किन्तु उनमें एक किस्म का ‘पवित्रता-बोध’ (Sence of religiousity) अवश्य मौजूद था, जो ‘प्रायश्चित्त’ या ‘मुक्ति’ जैसे शब्दों को एक गहरा मानवीय सन्दर्भ प्रदान करता है। टॉमस मान ने एक बार अपने बारे में कहा था, ‘‘मुझे आस्था में विश्वास नहीं है। उससे कहीं अधिक मुझे मानवीय अच्छाई में विश्वास है, जो आस्था के बिना भी जीवित रहती है—जो सम्भवतः संशय से उत्पन्न होती है।’’ संशय और आस्था की दोनों सीमाएँ चापेक के नाटकों ‘लाइफ-ऑफ इन्सेक्ट्स’ और ‘आर. यू. आर.’ में लक्षित होती है, जिनमें उन्होंने पहली बार औद्योगिक संस्कृति और फासिज्म की भयावह मानव-विरोधी और संहारात्मक विकृतियों की ओर संकेत किया था।
यह एक निर्मम व्यंग्य की स्थिति थी, कि जिस उदारवादी परम्परा के मूल्यों में चापेक का इतना गहरा विश्वास था, वे उनके समय में ही मुरझाने लगे थे। स्वयं चापेक ने कभी अपने घोर दुःस्वप्नों में कल्पना नहीं की थी कि युद्ध, फासिज्म और घृणा के तत्व उस परम्परा में विद्यमान हैं, जो मौका पाकर किसी भी समय विस्फोट हो सकते हैं। यातना और विकट अन्तर्द्वन्द्व के इन वर्षों में उन्होंने अपनी कुछ सर्वश्रेष्ठ कृतियों की रचना की थी...‘सैलामेन्डर्ज के साथ युद्ध’ (उपन्यास), ‘सफेद बीमारी’ (नाटक) ‘माँ’ (नाटक) तथा अपने अन्तिम दिनों में लिखी हुई प्रतीकात्मक कथाएँ और व्यंग्यात्मक सूक्तियाँ और उनके इस ‘मोह-भंग’ की अन्तःपीड़ा को व्यक्त करती हैं। जब ब्रिटेन और फ्रांस ने—अपने सब वायदों को छोड़कर-चापेक का देश हिटलर के हवाले कर दिया, तो उनके दिल पर गहरी ठेस पहुँची थी। जीवन-भर उन्होंने जिन प्रजातान्त्रिक देशों के आदर्शों में विश्वास किया था, वह एकाएक डगमगा गया था। अपनी नोटबुक में उन्होंने केवल कुछ शब्दों में अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी, ‘‘वे बुरे नहीं हैं। उन्होंने हमें बेचा नहीं...सिर्फ मुफ्त में दे दिया।’’
युद्ध आरम्भ होने के कुछ दिन पहले 1938 में क्रिसमस के दिन चापेक की मृत्यु हुई। डॉक्टर उनकी बीमारी का कोई लातिनी नाम नहीं बता सके। मृत्यु का कारण पूछने पर केवल इतना ही कहा, ‘‘उनकी आत्मा अधिक बर्दाश्त नहीं कर सकती थी।’’
प्रस्तुत संग्रह की पहली तीन कहानियाँ उनके अलग-अलग संग्रहों से चुनी गई हैं, शेष कहानियाँ उनके दो सुप्रसिद्ध संकलनों ‘पहली जेब की कहानियाँ’ और ‘दूसरी जेब की कहानियाँ’ की कुछ चुनी हुई कहानियों का अनुवाद हैं। एक दृष्टि से इन्हें ‘दार्शनिक कहानियाँ’ कहा जा सकता है—रूखे, सैद्धान्तिक स्तर पर नहीं बल्कि ऐसा ‘दर्शन’, जो मनुष्य के साधारणतम अनुभवों से निचुड़कर बाहर आता है। गोर्की के बारे में एक बार तोलस्तोय ने कहा था, ‘‘वह नास्तिक है, लेकिन उसमें एक चीज़ है, जो अधिकांश लेखकों में नहीं होती--‘विस्डम ऑफ दि हार्ट।’ ’’ चापेक की कहानियों का अनुवाद करते समय मुझे बराबर ये तीन शब्द याद आते हैं—विस्डम ऑफ दि हार्ट। इससे बेहतर मुझे चापेक और उनकी कहानियों के लिए कोई दूसरे शब्द नहीं सूझते।
कारेल चापेक हमारे लिए नितान्त अपरिचित लेखक नहीं हैं—यद्यपि हिन्दी में उनकी रचनाओं का अनुवाद नहीं के बराबर ही हुआ है। चेकोस्लोवाकिया का नाम सुनते ही जिन चन्द इने-गिने लेखकों का बरबस ध्यान हो आता है—‘भला सिपाही श्वायक’ के लेखक हाशेक, फ्यूचिक, तज़वल—उनमें चापेक का स्थान शायद सबसे विशिष्ट है। मेरे लिए चापेक की स्मृति कुछ ऐसी पुस्तकों से जुड़ी हुई है, जिन्हें हम बचपन में पढ़ते हैं—और बरसों बाद जब उनकी तरफ दोबारा लौटते हैं, तो वही गहरा और संवेदनपूर्ण प्रभाव आता है, जो पहली बार पढ़ने पर हुआ था। अपने देश में वह शायद आज भी सबसे लोकप्रिय लेखक हैं। पहली बार जब प्राग की किसी दुकान में मुझे चापेक की कोई पुस्तक नहीं मिली, तो मुझे काफी आश्चर्य हुआ था। चापेक के देश में ही चापेक की कोई किताब नहीं, मुझे यह एक अविश्वसनीय-सी बात लगी थी। बाद में एक दिन किसी पुस्तक की दुकान के सामने लोगों की एक लम्बी क्यू दिखाई दी। पूछने पर पता चला कि उस दिन चापेक के किसी उपन्यास का नया संस्करण प्रकाशित हुआ था। दोपहर होते-होते शहर की कोई ऐसी दुकान नहीं बची थी, जिसमें चापेक की एक प्रति भी मिल सके !
कारेल चापेक का जन्म 1890 में एक छोटे-से औद्योगिक नगर ऊपीत्से में हुआ था। उनका बचपन सचमुच बहुत छोटा था—शायद यही कारण था कि बड़ा होने पर भी वह हर चीज़ और व्यक्ति को बच्चे की जिज्ञासा से देखा करते थे और बच्चे की ही तरह उनका हर चीज़ में सहज विश्वास था। वह सर्वतोमुखी प्रतिभा के लेखक थे—उपन्यासकार, कहानी-लेखक और नाट्यकार होने के अलावा उन्होंने ‘पर्सनल’ निबन्ध और यात्रा-संस्मरण-जैसी विधाओं में भी अनेक नए और दिलचस्प प्रयोग किए थे। बहुत कम लोगों को मालूम है कि फ्रेंच प्रतीकवादी और सुररियलिस्ट कविताओं के उनके अनुवादों ने चेक कवियों की एक समूची पीढ़ी को प्रभावित किया था। आधुनिक चेक साहित्य को यूरोपीय साहित्य के समकक्ष लाने और उसे बीसवीं शताब्दी के जीवन्त संदर्भ में जोड़ने का श्रेय जितना चापेक को जाता है, उतना शायद किसी और अन्य लेखक को नहीं। उनकी लगभग सब महत्त्वपूर्ण रचनाएँ दो युद्धों के बीच लिखी गई थीं—वह एक ऐसी दुनिया थी, जो आज हमें काफी दूर और पराई जान पड़ती है, लेकिन जिसमें पहली बार बीसवीं शती की समस्याओं ने जन्म लिया था।
कारेल चापेक सम्पूर्ण रूप से बीसवीं शताब्दी के व्यक्ति थे...अत्यन्त समवेदनशील, असाधारण अन्तर्दृष्टि के मालिक, दो आँखों में हजार आँखें लिए हुए, अपने संस्पर्श से हर अँधेरी चीज़ को उजागर करने वाले, असली मायनों में एक सुसंस्कृत लेखक। उनका व्यक्तित्व बरबस हमें रोलाँ या रवीन्द्रनाथ-जैसी सम्पूर्ण आत्माओं का स्मरण करा देता है। चापेक ने अपने साहित्य में हर व्यक्ति के ‘निजी सत्य’ को खोजने का संघर्ष किया था—एक भेद और रहस्य और मर्म, जो ‘साधारण ज़िन्दगी’ की औसत और क्षुद्र घटनाओं के नीचे दबा रहता है। ‘खोज’ की यह उत्कट आकांक्षा आपको इन कहानियों में भी मिलेगी। अपनी एक कहानी ‘टिकट संग्रह’ में वह कहते हैं, ‘‘किसी चीज़ को खोजना और पाना—मेरे ख़याल में ज़िन्दगी में इससे बड़ा सुख और रोमांच कोई दूसरा नहीं। हर आदमी को कोई न कोई चीज़ खोजनी चाहिए...अगर टिकट नहीं तो सत्य या पंख या नुकीले विलक्षण पत्थर।’’ यह खोज एक किस्म का प्रायश्चित्त भी है, जिसके द्वारा मनुष्य अपनी ‘अपूर्णता’ के पाप से मुक्ति पा लेता है। चापेक ‘धार्मिक’ लेखक नहीं थे—कम-से-कम उस अर्थ में नहीं, जिसमें हम इस शब्द को प्रायः समझते हैं—किन्तु उनमें एक किस्म का ‘पवित्रता-बोध’ (Sence of religiousity) अवश्य मौजूद था, जो ‘प्रायश्चित्त’ या ‘मुक्ति’ जैसे शब्दों को एक गहरा मानवीय सन्दर्भ प्रदान करता है। टॉमस मान ने एक बार अपने बारे में कहा था, ‘‘मुझे आस्था में विश्वास नहीं है। उससे कहीं अधिक मुझे मानवीय अच्छाई में विश्वास है, जो आस्था के बिना भी जीवित रहती है—जो सम्भवतः संशय से उत्पन्न होती है।’’ संशय और आस्था की दोनों सीमाएँ चापेक के नाटकों ‘लाइफ-ऑफ इन्सेक्ट्स’ और ‘आर. यू. आर.’ में लक्षित होती है, जिनमें उन्होंने पहली बार औद्योगिक संस्कृति और फासिज्म की भयावह मानव-विरोधी और संहारात्मक विकृतियों की ओर संकेत किया था।
यह एक निर्मम व्यंग्य की स्थिति थी, कि जिस उदारवादी परम्परा के मूल्यों में चापेक का इतना गहरा विश्वास था, वे उनके समय में ही मुरझाने लगे थे। स्वयं चापेक ने कभी अपने घोर दुःस्वप्नों में कल्पना नहीं की थी कि युद्ध, फासिज्म और घृणा के तत्व उस परम्परा में विद्यमान हैं, जो मौका पाकर किसी भी समय विस्फोट हो सकते हैं। यातना और विकट अन्तर्द्वन्द्व के इन वर्षों में उन्होंने अपनी कुछ सर्वश्रेष्ठ कृतियों की रचना की थी...‘सैलामेन्डर्ज के साथ युद्ध’ (उपन्यास), ‘सफेद बीमारी’ (नाटक) ‘माँ’ (नाटक) तथा अपने अन्तिम दिनों में लिखी हुई प्रतीकात्मक कथाएँ और व्यंग्यात्मक सूक्तियाँ और उनके इस ‘मोह-भंग’ की अन्तःपीड़ा को व्यक्त करती हैं। जब ब्रिटेन और फ्रांस ने—अपने सब वायदों को छोड़कर-चापेक का देश हिटलर के हवाले कर दिया, तो उनके दिल पर गहरी ठेस पहुँची थी। जीवन-भर उन्होंने जिन प्रजातान्त्रिक देशों के आदर्शों में विश्वास किया था, वह एकाएक डगमगा गया था। अपनी नोटबुक में उन्होंने केवल कुछ शब्दों में अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी, ‘‘वे बुरे नहीं हैं। उन्होंने हमें बेचा नहीं...सिर्फ मुफ्त में दे दिया।’’
युद्ध आरम्भ होने के कुछ दिन पहले 1938 में क्रिसमस के दिन चापेक की मृत्यु हुई। डॉक्टर उनकी बीमारी का कोई लातिनी नाम नहीं बता सके। मृत्यु का कारण पूछने पर केवल इतना ही कहा, ‘‘उनकी आत्मा अधिक बर्दाश्त नहीं कर सकती थी।’’
प्रस्तुत संग्रह की पहली तीन कहानियाँ उनके अलग-अलग संग्रहों से चुनी गई हैं, शेष कहानियाँ उनके दो सुप्रसिद्ध संकलनों ‘पहली जेब की कहानियाँ’ और ‘दूसरी जेब की कहानियाँ’ की कुछ चुनी हुई कहानियों का अनुवाद हैं। एक दृष्टि से इन्हें ‘दार्शनिक कहानियाँ’ कहा जा सकता है—रूखे, सैद्धान्तिक स्तर पर नहीं बल्कि ऐसा ‘दर्शन’, जो मनुष्य के साधारणतम अनुभवों से निचुड़कर बाहर आता है। गोर्की के बारे में एक बार तोलस्तोय ने कहा था, ‘‘वह नास्तिक है, लेकिन उसमें एक चीज़ है, जो अधिकांश लेखकों में नहीं होती--‘विस्डम ऑफ दि हार्ट।’ ’’ चापेक की कहानियों का अनुवाद करते समय मुझे बराबर ये तीन शब्द याद आते हैं—विस्डम ऑफ दि हार्ट। इससे बेहतर मुझे चापेक और उनकी कहानियों के लिए कोई दूसरे शब्द नहीं सूझते।
-निर्मल वर्मा
दूसरी ज़िन्दगी
वोयतोख गहरी नींद में सो रहा था (वह नवम्बर की रात थी, जब गुदगुदे बिस्तर-जैसी आरामदेह जगह कोई नहीं) अचानक किसी ने बाहर खिड़की पर लकड़ी की खटखटाहट की। सोए हुए व्यक्ति को अपना स्वप्न पूरा करने में कुछ देर लगी—मानो खिड़की पर होती खटखटाहट उस सपने का ही एक अस्पष्ट किन्तु अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भाग हो। वह हड़बड़ाकर जाग गया। खट-खट-खट ! उसने अपना लिहाफ कानों तक खींच लिया। ताकि वह इस खटखटाहट को अपने से दूर ठेल सके। लेकिन खिड़की पर लकड़ी की खटखटाहट अनवरत—और पहले से अधिक ऊँचे स्वर में बजने लगी। वोयतोख बिस्तर से उछलकर खड़ा हो गया, खिड़की खोली और नीचे झाँककर देखा। नीचे सड़क पर एक आदमी गले में कॉलर चढ़ाए खड़ा था।
‘‘क्या चाहते हो ?’’ उसने चिल्लाकर पूछा। उसके स्वर में गुस्से और आक्रोश का भाव छिपा न रह सका।
‘‘ज़रा एक प्याला चाय मेरे लिए बना दो,’’ नीचे खड़े व्यक्ति ने तनिक रुँधे स्वर में कहा।
यह उसके भाई की आवाज़ थी, वोयतोख को पहचानने में देर नहीं लगी। वह अब अच्छी तरह जाग गया था। रात की कड़कड़ाती सरदी उसकी छाती में घुसने लगी। ‘‘एक मिनट ठहरो,’’ उसने बत्ती जलाई और जल्दी-जल्दी कपड़े पहनने लगा। तब उस क्षण उसे पहली बार इस बात का अहसास हुआ कि पिछले दो वर्षों से उसकी बोलचाल बन्द है। भाई के इस अप्रत्याशित आगमन पर उसे कुछ ऐसा आश्चर्य हो रहा था कि वह अपने जूते पहनना भी भूल गया। जूता हाथ में पकड़कर वह विस्मय से सिर हिलाने लगा। वह क्यों आया है ? जाहिर है, कोई दुर्घटना घटी है, उसने सोचा और जल्दी से कपड़े पहनकर वह खिड़की के सामने चला आया। उसका भाई अब वहाँ नहीं था। वह गली के नुक्कड़ पर पहुँच गया था। शायद उसे इतनी देर प्रतीक्षा करना अखर गया था। वोयतोख भागता हुआ दहलीज़ में चला आया और दरवाज़ा खोलकर अपने भाई के पीछे-पीछे भागने लगा।
उसका भाई बिना दाएँ-बाएँ देखे तेज़ कदमों से आगे बढ़ा जा रहा था। ‘‘कारेल’’ वोयतोख ने भागते हुए पुकारा। उसे मालूम था कि उसके भाई ने उसकी आवाज़ सुन ली है, किन्तु इसके बावजूद न वह ठहरा, न ही उसकी चाल धीमी हुई। वह तेज़ी से उसके पीछे भागते हुए चीखने लगा, ‘‘कारेल—क्या बात है ? सुनो...जरा एक मिनट ठहरो ?’’
लेकिन कारेल की चाल में कोई अन्तर नहीं आया। सरदी में काँपता हुआ वोयतोख हक्का-बक्का-सा सड़क पर ठिठक गया। उसे तब ध्यान आया कि वह बारिश में खड़ा है। कारेल सहसा सीधा चलता हुआ पीछे मुड़ गया और तेज़ी से अपने भाई के सामने आकर खड़ा हो गया। पिछले दो वर्षों से उसकी बोलचाल बन्द थी। वह काफ़ी ढीठ और जिद्दी स्वभाव का शख्स था। अब वह वोयतोख के सामने खड़ा था—अपने होंठ चबाता हुआ। उसकी आँखें अँधेरे में चमक रही थीं।
‘‘तुम मुझे चाय का एक प्याला भी नहीं दे सकते...क्यों ?’’
कारेल ने बुड़बुड़ाते हुए कहा। उसके स्वर में हल्की-सी नाराज़गी और आहत अभिमान भरा था।
‘‘क्यों नहीं...मुझे बड़ी खुशी होगी...’’ वोयतोख ने एक साँस में कहा। उसे अब हल्का महसूस हो रहा था। ‘‘झटपट मेरे साथ आओ...मैं अभी चाय बना देता हूँ।’’
‘‘बहुत मेहरबानी !’’ कारेल ने तनिक कटु स्वर में कहा।
‘‘इसमें मेहरबानी की क्या बात है !’’ वोयतोख ने कातर-भाव से उसे बीच में ही टोक दिया, ‘‘तुम पहले क्यों नहीं चले आए...आधा मिनट भी नहीं लगेगा...शौक से जो लेना चाहो, लो...कुछ खाओगे ? तुम्हारे कहने की देर है...सच, मुझे बहुत खुशी होगी ?’’
‘‘शुक्रिया...सिर्फ एक कप चाय !’’
मेरे पास मोराविया का कुछ बेकन (सुअर का गोश्त) रखा है...तुम चाहो तो...या अंडे...पता नहीं, क्या बजा होगा। कारेल, तुमसे मिले मुद्दत गुज़र गई...कुछ शराब लोगे ?’’
‘‘नहीं।’’
‘‘अच्छा...जैसी तुम्हारी खुशी...देखो ज़रा ध्यान से...यहाँ सीढ़ियाँ हैं।’’
‘‘मुझे मालूम है।’’
आख़िर वोयतोख उसे अपने साथ घर ले आया। वह काफ़ी देर तक अपने भाई से हँसता–बोलता रहा, उसके सामने खीने-पीने की चीज़ों का ढेर लगा दिया। बीच-बीच में तनिक खेद प्रकट करते हुए कह देता, ‘‘कुआँरे आदमियों का घर ऐसा ही होता है।’’ उसने झटपट एक-दो कुर्सियाँ साफ़ कीं और धूम्रपान का सामान मेज़ पर रख दिया। एक क्षण के लिए भी उसे इस बात का आभास नहीं हुआ कि वह सारी बातचीत खुद कर रहा है। किन्तु इस दौरान रह-रहकर एक सतर्क, अधीर जिज्ञासा उसके मन को कचोटती रहती—उसके भाई के साथ ज़रूर कोई दुर्घटना हुई है !
सामने कारेल बैठा था—ग़मग़ीन, अपने खयालों में डूबा हुआ कमरे में बोझिल-सा सन्नाटा घिर आया था। आखिर वोयतोख से चुप नहीं रहा गया।
‘‘कारेल, तुम्हारे साथ कुछ हुआ है ?’’ उसने पूछा।
‘‘नहीं।’’
वोयतोख किंकर्तव्यविमूढ़—सा होकर सिर हिलाने लगा वह अपने भाई को ठीक से पहचान नहीं पा रहा है। उसके कपड़ों से औरतों और शराब की गन्ध आ रही थी। वह एक विवाहित व्यक्ति था। घर में एक छोटी-सी खूबसूरत बीवी थी...गऊ की तरह सीधी और नेक। बरसों से उसका भाई एक घरेलू व्यक्ति रहा है...घरबार के मामलों में निपुण और दक्ष। अपने रहन-सहन में वह काफी संयमी, नियमित और सादगीपसन्द था। अपने बारे में उसकी राय काफी ऊँची थी। सिर्फ़ एक बार वह बीमार पड़ा था, किन्तु उसके बाद उसने अपनी ज़िन्दगी स्वास्थ्य और संयम के साथ कड़े नियमों द्वारा इस तरह अनुशासित कर ली थी, मानो ज़िन्दगी अपने में ही एक ‘मूल्य’ हो जिसे प्रतिदिन आत्मनियन्त्रण और नियमित आदतों द्वारा ही खरीदा जा सकता है। किन्तु अब वही कारेल उसके सामने गम्भीर-मुद्रा में गुमसुम बैठा था पिछली रात के भोग-विलास के बाद वह सहसा जाग गया हो। उसके माथे की त्यौरियाँ चढ़ी थीं, चेहरे पर एक अजीब, अनिर्वचनीय तनाव-सा आ सिमटा था मानो वह अपने भीतर उमड़ती गालियों को बड़ी कठिनाई से दबाने की कोशिश कर रहा हो। लगता था जैसे कोई भयानक चीज़ उसे भीतर-ही-भीतर साल रही हो।
सुबह के तीन घंटे बजे। वोयतोख ने सहसा माथा पीट लिया, ‘अरे—चाय तो भूल ही गया’ उसने स्त्रियों की तरह चिन्तित होकर कहा और फिर तेज़ कदमों से रसोई में जा घुसा। रसोई की ठंडक उसे चुभने लगी। एक सिकुड़ी-मुकड़ी बुढ़िया की तरह उसने अपनी देह को शॉल से लपेट लिया और स्पिरिट लैम्प की नीली लपट पर चाय का पानी गरम करने रख दिया। इस तरह यन्त्रवत् काम करते हुए उसे हल्की-सी खुशी हुई। उसने तश्तरियों, प्याले और चीनी बाहर निकालकर रख लिए। बर्तनों की आत्मीय खनखनाहट सुनकर उसका मन आश्वस्त-सा हो गया। कभी-कभी वह दरवाज़े की दरार से कमरे में अपने भाई को देख लेता था। वह खुली खिड़की के सामने चुपचाप खड़ा था मानो कान लगाकर वाल्तावा की गड़गड़ाहट को सुन रहा हो...अँधेरे में चारों ओर फैला हुआ एक अनवरत स्वर, जिसने एक परदे की तरह बारिश की रिमझिम को छिपा-सा लिया था।
‘‘तुम्हें जाड़ा तो नहीं लग रहा ?’’ वोयतोख ने चिन्तित स्वर में पूछा।
‘‘नहीं।’’
वोयतोख दरवाज़े पर आ खड़ा हुआ—कुंठित, उदास। यह एक किनारा है, उसने सोचा। किनारे के इस तरफ़ उसका शान्त, अँधेरा छोटा-सा कोटर है, जिसमें लैम्प की प्रीतिकर सरसराहट सुनाई दे रही है। एक छोटा-सा आरामदेह कोटर...अपने घर में रहने का सुख, गरमाई, अतिथि-सत्कार करने का आनन्द...यहाँ सबकुछ है। लेकिन किनारे के दूसरी तरफ़ एक खुली हुई खिड़की है, नदी और अँधेरे की गम्भीर दहाड़ते स्वर से भरी हुई मानो—स्वयं रात वल्तावा की सतह पर दौड़ रही हो।
खिड़की के सामने एक लम्बा व्यक्ति सीधा तनकर खड़ा है—अजीब-सा, उत्तेजित और अपरिचित—उसका अपना भाई, जिसे वह नहीं पहचानता। वोयतोख को लगा जैसे वह कमरे की देहरी पर नहीं, बल्कि दो दुनियाओं की सीमा पर खड़ा है, उसकी अपनी आत्मीय दुनिया और उसके भाई की अपरिचित, अजानी दुनिया, जो उस क्षण अजीब-सी विराट् और भयावह जान पड़ रही थी। उसे मालूम था कि कुछ ही देर में एक विचित्र रहस्योद्घाटन होनेवाला है, उसका भाई उसे कोई अत्यन्त महत्त्वपूर्ण खबर देने आया है...उस क्षण लैम्प की सरसराहट और नदी के फुसफुसाहट स्वर को सुनते हुए सहसा वोयतोख का हृदय भय से सिहर गया।
वोयतोख ने भाप से गरम चाय की केतली मेज़ पर रख दी और फिर वह भ्रातभाव से पूछा, ‘‘कुछ खाओगे नहीं ?’’ एक मिनट बाद ही वह बिस्किट और बेकन रसोई से ले आया और बार-बार कारेल से खाने के लिए आग्रह करने लगा। उस समय उसके भीतर एक विचित्र-सी नारी-सुलभ कोमलता उमड़ आई थी और वह एक स्नेहशील बुआ की तरह अपने भाई को प्रसन्न करने की कोशिश कर रहा था। कारेल ने चाय का एक घूँट लिया और फिर वह अपनी प्यास भूल गया। ‘‘सुनो...’’ उसने कहा और फिर सहसा रुक गया। वह हाथों-तले अपना चेहरा छिपाकर बैठा था। उसे अब अपनी बात को पूरा करने में कोई दिलचस्पी नहीं रह गई थी।
अचानक वह मुँह सीधा करके बैठ गया, ‘‘वोयतोख, सुनो...मैं सिर्फ यह कहना चाहता था कि हमने एक-दूसरे से झगड़ा करके काफ़ी बेवकूफ़ी की। कृपया यह मत सोचो कि मैं रुपए का गुलाम हूँ। अगर तुम ऐसा सोचते भी हो तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता..हालाँकि यह सच नहीं है। मैं रुपये के पीछे नहीं हूँ...’’ उसने उत्तेजित भाव से उँगलियाँ चटखाते हुए कहा,. ‘‘कम-से-कम उतना नहीं हूँ, जितना तुम समझते हो। रुपया हो-या कोई दूसरी चीज़—मेरा अब किसी से लगाव नहीं रहा। मैं बिना किसी चीज़ के सहारे मज़े से ज़िन्दगी चला सकता हूँ।’’
वोयतोख का दिल बिल्कुल पसीज गया। विह्वल-भाव से वह बार-बार अपने भाई को आश्वासन देने लगा कि एक लम्बे अर्से बाद उसे कभी झगड़े का ख़याल भी नहीं आया है...शायद इसमें दोनों का ही दोष था...लेकिन कारेल उसकी बात नहीं सुन रहा था, ‘‘अच्छा...अब बन्द करो।’’ कुछ देर बाद उसने कहा, ‘‘मैं अब उसके बारे में नहीं सोच रहा। मैं सिर्फ तुमसे यह कहने आया था कि...’’ उसके शब्द झिझकते-से बाहर निकल रहे थे, ‘‘क्या तुम एक काम कर सकते हो...मैं चाहता हूँ कि तुम मेरी पत्नी को यह खबर पहुँचा दो कि मैंने दफ्तर छोड़ दिया है।’’
‘‘लेकिन क्यों ?...वोयतोख ने आश्चर्य से चीखते हुए कहा, ‘‘तुम क्या घर वापस नहीं जाओगे ?’’
‘‘फिलहाल नहीं...समझे ? और शायद कभी नहीं...लेकिन यह अहम बात नहीं है। अगर वह अकेलापन महसूस करेगी, तो अपने मायके जा सकती है। मैं सिर्फ यह चाहता हूँ कि मेरी ज़िन्दगी में कोई विघ्न-बाधा न डाले। सुनो—मैं एक शुरूआत चाहता हूँ...मैंने एक योजना भी बनाई है, फिलहाल उसकी तफसील में जाना बेकार है। मुख्य बात यह है कि मैं अपने को पाना चाहता हूँ...समझे ?’’
‘‘नहीं...मैं कुछ भी नहीं समझा। आखिर दफ्तर ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है ?’’
‘‘कुछ नहीं...बेकार की बातें और कुछ नहीं। दफ्तर भाड़ में जाए। वहाँ क्या होगा—मुझे इससे कुछ लेना-देना नहीं। क्या तुम समझते हो कि मैं दफ्तर के कारण परेशान हो रहा हूँ ?’’
‘‘फिर कौन-सी चीज़ तुम्हें परेशान कर रही है ?’’
‘‘कुछ भी नहीं। वह फालतू बात है। मैं अब उसके बारे में सोचता भी नहीं। इसके विपरीत मैं अब खुश हूँ...काफी खुश हूँ। वोयतो—सुनो, उसने सहसा वोयतोख की ओर गोपनीय दृष्टि से देखा—‘‘क्या तुम सचमुच सोचते हो कि मैं अफसरी करने के लिए बना हूँ ? सच बताओ ?’’
‘‘मुझे...मुझे नहीं मालूम।’’ वोयतोख ने हकलाते हुए कहा।
‘‘मेरा मतलब है...तुम मुझे बचपन से जानते हो...क्या तुम यह समझते हो कि इस तरह की ज़िन्दगी मेरे योग्य है ? क्या मैं इससे सन्तुष्ट हो सकता हूँ ? क्या मुझे यह हक नहीं है या....क्या यह मेरे लिए जरूरी नहीं है कि मैं बिल्कुल अलग ढंग से ज़िन्दगी अपने लिए चुन सकूँ ? तुम ऐसा नहीं सोचते ?’’
‘‘नहीं...मैं ऐसा नहीं सोचता।’’ वोयतोख ने तनिक अनमने और ढिलमिल भाव से कहा। उस क्षण उसके सामने अपने भाई कि नियमित और साफ-सुथरी सन्तुलन भरी ज़िन्दगी घूम गई—एक ऐसी ज़िन्दगी जिसे देखकर उसे कभी-कभी ईर्ष्या होती थी, लेकिन जिसमें उसकी गहरी दिलचस्पी कभी नहीं रही।
‘‘क्या चाहते हो ?’’ उसने चिल्लाकर पूछा। उसके स्वर में गुस्से और आक्रोश का भाव छिपा न रह सका।
‘‘ज़रा एक प्याला चाय मेरे लिए बना दो,’’ नीचे खड़े व्यक्ति ने तनिक रुँधे स्वर में कहा।
यह उसके भाई की आवाज़ थी, वोयतोख को पहचानने में देर नहीं लगी। वह अब अच्छी तरह जाग गया था। रात की कड़कड़ाती सरदी उसकी छाती में घुसने लगी। ‘‘एक मिनट ठहरो,’’ उसने बत्ती जलाई और जल्दी-जल्दी कपड़े पहनने लगा। तब उस क्षण उसे पहली बार इस बात का अहसास हुआ कि पिछले दो वर्षों से उसकी बोलचाल बन्द है। भाई के इस अप्रत्याशित आगमन पर उसे कुछ ऐसा आश्चर्य हो रहा था कि वह अपने जूते पहनना भी भूल गया। जूता हाथ में पकड़कर वह विस्मय से सिर हिलाने लगा। वह क्यों आया है ? जाहिर है, कोई दुर्घटना घटी है, उसने सोचा और जल्दी से कपड़े पहनकर वह खिड़की के सामने चला आया। उसका भाई अब वहाँ नहीं था। वह गली के नुक्कड़ पर पहुँच गया था। शायद उसे इतनी देर प्रतीक्षा करना अखर गया था। वोयतोख भागता हुआ दहलीज़ में चला आया और दरवाज़ा खोलकर अपने भाई के पीछे-पीछे भागने लगा।
उसका भाई बिना दाएँ-बाएँ देखे तेज़ कदमों से आगे बढ़ा जा रहा था। ‘‘कारेल’’ वोयतोख ने भागते हुए पुकारा। उसे मालूम था कि उसके भाई ने उसकी आवाज़ सुन ली है, किन्तु इसके बावजूद न वह ठहरा, न ही उसकी चाल धीमी हुई। वह तेज़ी से उसके पीछे भागते हुए चीखने लगा, ‘‘कारेल—क्या बात है ? सुनो...जरा एक मिनट ठहरो ?’’
लेकिन कारेल की चाल में कोई अन्तर नहीं आया। सरदी में काँपता हुआ वोयतोख हक्का-बक्का-सा सड़क पर ठिठक गया। उसे तब ध्यान आया कि वह बारिश में खड़ा है। कारेल सहसा सीधा चलता हुआ पीछे मुड़ गया और तेज़ी से अपने भाई के सामने आकर खड़ा हो गया। पिछले दो वर्षों से उसकी बोलचाल बन्द थी। वह काफ़ी ढीठ और जिद्दी स्वभाव का शख्स था। अब वह वोयतोख के सामने खड़ा था—अपने होंठ चबाता हुआ। उसकी आँखें अँधेरे में चमक रही थीं।
‘‘तुम मुझे चाय का एक प्याला भी नहीं दे सकते...क्यों ?’’
कारेल ने बुड़बुड़ाते हुए कहा। उसके स्वर में हल्की-सी नाराज़गी और आहत अभिमान भरा था।
‘‘क्यों नहीं...मुझे बड़ी खुशी होगी...’’ वोयतोख ने एक साँस में कहा। उसे अब हल्का महसूस हो रहा था। ‘‘झटपट मेरे साथ आओ...मैं अभी चाय बना देता हूँ।’’
‘‘बहुत मेहरबानी !’’ कारेल ने तनिक कटु स्वर में कहा।
‘‘इसमें मेहरबानी की क्या बात है !’’ वोयतोख ने कातर-भाव से उसे बीच में ही टोक दिया, ‘‘तुम पहले क्यों नहीं चले आए...आधा मिनट भी नहीं लगेगा...शौक से जो लेना चाहो, लो...कुछ खाओगे ? तुम्हारे कहने की देर है...सच, मुझे बहुत खुशी होगी ?’’
‘‘शुक्रिया...सिर्फ एक कप चाय !’’
मेरे पास मोराविया का कुछ बेकन (सुअर का गोश्त) रखा है...तुम चाहो तो...या अंडे...पता नहीं, क्या बजा होगा। कारेल, तुमसे मिले मुद्दत गुज़र गई...कुछ शराब लोगे ?’’
‘‘नहीं।’’
‘‘अच्छा...जैसी तुम्हारी खुशी...देखो ज़रा ध्यान से...यहाँ सीढ़ियाँ हैं।’’
‘‘मुझे मालूम है।’’
आख़िर वोयतोख उसे अपने साथ घर ले आया। वह काफ़ी देर तक अपने भाई से हँसता–बोलता रहा, उसके सामने खीने-पीने की चीज़ों का ढेर लगा दिया। बीच-बीच में तनिक खेद प्रकट करते हुए कह देता, ‘‘कुआँरे आदमियों का घर ऐसा ही होता है।’’ उसने झटपट एक-दो कुर्सियाँ साफ़ कीं और धूम्रपान का सामान मेज़ पर रख दिया। एक क्षण के लिए भी उसे इस बात का आभास नहीं हुआ कि वह सारी बातचीत खुद कर रहा है। किन्तु इस दौरान रह-रहकर एक सतर्क, अधीर जिज्ञासा उसके मन को कचोटती रहती—उसके भाई के साथ ज़रूर कोई दुर्घटना हुई है !
सामने कारेल बैठा था—ग़मग़ीन, अपने खयालों में डूबा हुआ कमरे में बोझिल-सा सन्नाटा घिर आया था। आखिर वोयतोख से चुप नहीं रहा गया।
‘‘कारेल, तुम्हारे साथ कुछ हुआ है ?’’ उसने पूछा।
‘‘नहीं।’’
वोयतोख किंकर्तव्यविमूढ़—सा होकर सिर हिलाने लगा वह अपने भाई को ठीक से पहचान नहीं पा रहा है। उसके कपड़ों से औरतों और शराब की गन्ध आ रही थी। वह एक विवाहित व्यक्ति था। घर में एक छोटी-सी खूबसूरत बीवी थी...गऊ की तरह सीधी और नेक। बरसों से उसका भाई एक घरेलू व्यक्ति रहा है...घरबार के मामलों में निपुण और दक्ष। अपने रहन-सहन में वह काफी संयमी, नियमित और सादगीपसन्द था। अपने बारे में उसकी राय काफी ऊँची थी। सिर्फ़ एक बार वह बीमार पड़ा था, किन्तु उसके बाद उसने अपनी ज़िन्दगी स्वास्थ्य और संयम के साथ कड़े नियमों द्वारा इस तरह अनुशासित कर ली थी, मानो ज़िन्दगी अपने में ही एक ‘मूल्य’ हो जिसे प्रतिदिन आत्मनियन्त्रण और नियमित आदतों द्वारा ही खरीदा जा सकता है। किन्तु अब वही कारेल उसके सामने गम्भीर-मुद्रा में गुमसुम बैठा था पिछली रात के भोग-विलास के बाद वह सहसा जाग गया हो। उसके माथे की त्यौरियाँ चढ़ी थीं, चेहरे पर एक अजीब, अनिर्वचनीय तनाव-सा आ सिमटा था मानो वह अपने भीतर उमड़ती गालियों को बड़ी कठिनाई से दबाने की कोशिश कर रहा हो। लगता था जैसे कोई भयानक चीज़ उसे भीतर-ही-भीतर साल रही हो।
सुबह के तीन घंटे बजे। वोयतोख ने सहसा माथा पीट लिया, ‘अरे—चाय तो भूल ही गया’ उसने स्त्रियों की तरह चिन्तित होकर कहा और फिर तेज़ कदमों से रसोई में जा घुसा। रसोई की ठंडक उसे चुभने लगी। एक सिकुड़ी-मुकड़ी बुढ़िया की तरह उसने अपनी देह को शॉल से लपेट लिया और स्पिरिट लैम्प की नीली लपट पर चाय का पानी गरम करने रख दिया। इस तरह यन्त्रवत् काम करते हुए उसे हल्की-सी खुशी हुई। उसने तश्तरियों, प्याले और चीनी बाहर निकालकर रख लिए। बर्तनों की आत्मीय खनखनाहट सुनकर उसका मन आश्वस्त-सा हो गया। कभी-कभी वह दरवाज़े की दरार से कमरे में अपने भाई को देख लेता था। वह खुली खिड़की के सामने चुपचाप खड़ा था मानो कान लगाकर वाल्तावा की गड़गड़ाहट को सुन रहा हो...अँधेरे में चारों ओर फैला हुआ एक अनवरत स्वर, जिसने एक परदे की तरह बारिश की रिमझिम को छिपा-सा लिया था।
‘‘तुम्हें जाड़ा तो नहीं लग रहा ?’’ वोयतोख ने चिन्तित स्वर में पूछा।
‘‘नहीं।’’
वोयतोख दरवाज़े पर आ खड़ा हुआ—कुंठित, उदास। यह एक किनारा है, उसने सोचा। किनारे के इस तरफ़ उसका शान्त, अँधेरा छोटा-सा कोटर है, जिसमें लैम्प की प्रीतिकर सरसराहट सुनाई दे रही है। एक छोटा-सा आरामदेह कोटर...अपने घर में रहने का सुख, गरमाई, अतिथि-सत्कार करने का आनन्द...यहाँ सबकुछ है। लेकिन किनारे के दूसरी तरफ़ एक खुली हुई खिड़की है, नदी और अँधेरे की गम्भीर दहाड़ते स्वर से भरी हुई मानो—स्वयं रात वल्तावा की सतह पर दौड़ रही हो।
खिड़की के सामने एक लम्बा व्यक्ति सीधा तनकर खड़ा है—अजीब-सा, उत्तेजित और अपरिचित—उसका अपना भाई, जिसे वह नहीं पहचानता। वोयतोख को लगा जैसे वह कमरे की देहरी पर नहीं, बल्कि दो दुनियाओं की सीमा पर खड़ा है, उसकी अपनी आत्मीय दुनिया और उसके भाई की अपरिचित, अजानी दुनिया, जो उस क्षण अजीब-सी विराट् और भयावह जान पड़ रही थी। उसे मालूम था कि कुछ ही देर में एक विचित्र रहस्योद्घाटन होनेवाला है, उसका भाई उसे कोई अत्यन्त महत्त्वपूर्ण खबर देने आया है...उस क्षण लैम्प की सरसराहट और नदी के फुसफुसाहट स्वर को सुनते हुए सहसा वोयतोख का हृदय भय से सिहर गया।
वोयतोख ने भाप से गरम चाय की केतली मेज़ पर रख दी और फिर वह भ्रातभाव से पूछा, ‘‘कुछ खाओगे नहीं ?’’ एक मिनट बाद ही वह बिस्किट और बेकन रसोई से ले आया और बार-बार कारेल से खाने के लिए आग्रह करने लगा। उस समय उसके भीतर एक विचित्र-सी नारी-सुलभ कोमलता उमड़ आई थी और वह एक स्नेहशील बुआ की तरह अपने भाई को प्रसन्न करने की कोशिश कर रहा था। कारेल ने चाय का एक घूँट लिया और फिर वह अपनी प्यास भूल गया। ‘‘सुनो...’’ उसने कहा और फिर सहसा रुक गया। वह हाथों-तले अपना चेहरा छिपाकर बैठा था। उसे अब अपनी बात को पूरा करने में कोई दिलचस्पी नहीं रह गई थी।
अचानक वह मुँह सीधा करके बैठ गया, ‘‘वोयतोख, सुनो...मैं सिर्फ यह कहना चाहता था कि हमने एक-दूसरे से झगड़ा करके काफ़ी बेवकूफ़ी की। कृपया यह मत सोचो कि मैं रुपए का गुलाम हूँ। अगर तुम ऐसा सोचते भी हो तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता..हालाँकि यह सच नहीं है। मैं रुपये के पीछे नहीं हूँ...’’ उसने उत्तेजित भाव से उँगलियाँ चटखाते हुए कहा,. ‘‘कम-से-कम उतना नहीं हूँ, जितना तुम समझते हो। रुपया हो-या कोई दूसरी चीज़—मेरा अब किसी से लगाव नहीं रहा। मैं बिना किसी चीज़ के सहारे मज़े से ज़िन्दगी चला सकता हूँ।’’
वोयतोख का दिल बिल्कुल पसीज गया। विह्वल-भाव से वह बार-बार अपने भाई को आश्वासन देने लगा कि एक लम्बे अर्से बाद उसे कभी झगड़े का ख़याल भी नहीं आया है...शायद इसमें दोनों का ही दोष था...लेकिन कारेल उसकी बात नहीं सुन रहा था, ‘‘अच्छा...अब बन्द करो।’’ कुछ देर बाद उसने कहा, ‘‘मैं अब उसके बारे में नहीं सोच रहा। मैं सिर्फ तुमसे यह कहने आया था कि...’’ उसके शब्द झिझकते-से बाहर निकल रहे थे, ‘‘क्या तुम एक काम कर सकते हो...मैं चाहता हूँ कि तुम मेरी पत्नी को यह खबर पहुँचा दो कि मैंने दफ्तर छोड़ दिया है।’’
‘‘लेकिन क्यों ?...वोयतोख ने आश्चर्य से चीखते हुए कहा, ‘‘तुम क्या घर वापस नहीं जाओगे ?’’
‘‘फिलहाल नहीं...समझे ? और शायद कभी नहीं...लेकिन यह अहम बात नहीं है। अगर वह अकेलापन महसूस करेगी, तो अपने मायके जा सकती है। मैं सिर्फ यह चाहता हूँ कि मेरी ज़िन्दगी में कोई विघ्न-बाधा न डाले। सुनो—मैं एक शुरूआत चाहता हूँ...मैंने एक योजना भी बनाई है, फिलहाल उसकी तफसील में जाना बेकार है। मुख्य बात यह है कि मैं अपने को पाना चाहता हूँ...समझे ?’’
‘‘नहीं...मैं कुछ भी नहीं समझा। आखिर दफ्तर ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है ?’’
‘‘कुछ नहीं...बेकार की बातें और कुछ नहीं। दफ्तर भाड़ में जाए। वहाँ क्या होगा—मुझे इससे कुछ लेना-देना नहीं। क्या तुम समझते हो कि मैं दफ्तर के कारण परेशान हो रहा हूँ ?’’
‘‘फिर कौन-सी चीज़ तुम्हें परेशान कर रही है ?’’
‘‘कुछ भी नहीं। वह फालतू बात है। मैं अब उसके बारे में सोचता भी नहीं। इसके विपरीत मैं अब खुश हूँ...काफी खुश हूँ। वोयतो—सुनो, उसने सहसा वोयतोख की ओर गोपनीय दृष्टि से देखा—‘‘क्या तुम सचमुच सोचते हो कि मैं अफसरी करने के लिए बना हूँ ? सच बताओ ?’’
‘‘मुझे...मुझे नहीं मालूम।’’ वोयतोख ने हकलाते हुए कहा।
‘‘मेरा मतलब है...तुम मुझे बचपन से जानते हो...क्या तुम यह समझते हो कि इस तरह की ज़िन्दगी मेरे योग्य है ? क्या मैं इससे सन्तुष्ट हो सकता हूँ ? क्या मुझे यह हक नहीं है या....क्या यह मेरे लिए जरूरी नहीं है कि मैं बिल्कुल अलग ढंग से ज़िन्दगी अपने लिए चुन सकूँ ? तुम ऐसा नहीं सोचते ?’’
‘‘नहीं...मैं ऐसा नहीं सोचता।’’ वोयतोख ने तनिक अनमने और ढिलमिल भाव से कहा। उस क्षण उसके सामने अपने भाई कि नियमित और साफ-सुथरी सन्तुलन भरी ज़िन्दगी घूम गई—एक ऐसी ज़िन्दगी जिसे देखकर उसे कभी-कभी ईर्ष्या होती थी, लेकिन जिसमें उसकी गहरी दिलचस्पी कभी नहीं रही।
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